एक जमाने में पत्रकारिता समाज के उन लोगों के साथ खड़ी होती थी, जो वंचित और शोषित कहे जाते थे और पत्रकार उनके हक़ के लिए खड़े हो जाते थे. पिछड़ों और दलितों को न्याय दिलाने की पत्रकारिता अब समाचार माध्यमों से विलुप्त होती दिख रही है. टेलीविज़न ने इस तरह की पत्रकारिता का बड़ा नुक़सान किया. चूंकि टीवी दृश्य माध्यम है, इसलिए यहां प्रोफाइल पर बहुत ध्यान दिया जाता है. झुग्गियों में अगर कोई बलात्कार होता है तो वह ख़बर टीवी न्यूज़ पर सुर्ख़ियां नहीं बनती. न्यूज़ चैनलों को ग्लैमर चाहिए और इसी ग्लैमर एवं चमक-दमक की चाहत में ख़बरिया चैनलों से ग़रीब-गुरबा ग़ायब होते चले गए. कुछ न्यूज़ चैनलों में यह साहस अब भी है कि वे बुंदेलखंड, विदर्भ या फिर बिहार के सुदूर इलाक़ों के ग़रीबों पर कार्यक्रम बनाते हैं. कमोबेश यही हालत अख़बारों और पत्रिकाओं की भी हो गई है. अगर कोई सेक्स सर्वे आ गया तो उसे प्रमुखता से कवर स्टोरी बना दिया जाता है, क्या आपको याद है कि खुद के राष्ट्रीय पत्रिका होने का दावा करने वाली किसी भी पत्रिका के कवर पेज पर समाज के निचले पायदान पर जीवन बसर करने वालों के चित्र प्रकाशित होते हैं? लेकिन, हमारे ही देश में ग़रीबों और दलितों के हक़ों के लिए पत्रकारिता की एक लंबी परंपरा रही है.
अभी हाल ही में संतोष भारतीय के संपादन में दलित, अल्पसंख्यक सशक्तीकरण नामक लगभग पांच सौ पन्नों की किताब आई है. इस किताब में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व प्रधानमंत्रियों-विश्वनाथ प्रताप सिंह और इंद्र कुमार गुजराल समेत कई विद्वानों के लेख संकलित किए गए हैं.
पिछले दिनों मैं रविवार पत्रिका के पुराने अंक पलट रहा था तो मुझे दलितों और उनकी समस्याओं पर वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय के लिखे कई लेख मिले. इस क्रम में मैं स़िर्फ दो लेखों का उल्लेख करना चाहूंगा, जो मार्च और अगस्त उन्नीस सौ चौरासी में छपे थे. पहला लेख था- श्रीपति जी, ग़रीब हरिजन की ज़मीन तो लौटा दीजिए. यह लेख उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्र के उनके अपने गांव में एक दलित जोखई की ज़मीन क़ब्ज़ाने के बारे में विस्तार से लिखा गया था. श्रीपति मिश्र के परिवार पर एक हरिजन की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने की कहानी छपने के बाद उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक के सियासी हलकों में हड़कंप मच गया और चार महीने बीतते ही श्रीपति मिश्र को इंदिरा गांधी ने चलता कर दिया. यह एक रिपोर्ट की ताक़त थी, एक पत्रकार की ताक़त थी और एक पत्रकार का समाज के प्रति उत्तरदायित्व भी, जहां वह समाज के सबसे निचले तबके को न्याय दिलाने के लिए प्रदेश के सबसे ताक़तवर आदमी को भी नहीं बख्शता है. इस तरह की रिपोर्टिंग से आम जनता के मन में पत्रकारिता को लेकर एक विश्वास पैदा होता है.
संतोष भारतीय ने पत्रकारिता के अपने लंबे करियर में दलितों एवं अल्पसंख्यकों की बेहतरी के सवाल को अपने लेखों में ज़ोरदार तरीक़े से उठाया और इसका असर भी हुआ. अभी हाल ही में संतोष भारतीय के संपादन में दलित, अल्पसंख्यक सशक्तीकरण नामक लगभग पांच सौ पन्नों की किताब आई है. इस किताब में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पूर्व प्रधानमंत्रियों-विश्वनाथ प्रताप सिंह और इंद्र कुमार गुजराल समेत कई विद्वानों के लेख संकलित किए गए हैं. डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने लेख में बेहद ही साफगोई और साहस के साथ यह स्वीकार किया है कि मेरा मानना है कि साठ वर्षों के संवैधानिक एवं क़ानूनी संरक्षण और राज्य सहायता के बावजूद देश के कई हिस्सों में दलितों के ख़िला़फ सामाजिक भेदभाव अब भी मौजूद है. आज़ादी के साठ सालों बाद भी अगर एक लोकतांत्रिक देश के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति यह स्वीकार करता है कि दलितों के साथ सामाजिक भेदभाव होता है, तो यह न केवल एक बेहद गंभीर बात है, बल्कि एक सभ्य समाज का दावा करने वाले देश के सामने एक बड़ा सवाल भी है, जिसका निराकरण ढूंढे जाने की ज़रूरत है. पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान ने अपने लेख में दलित अल्पसंख्यक महाशक्ति की यात्रा, उसके संघर्षों और पीड़ा को शिद्दत के साथ चिन्हित किया है. साथ ही दलितों और अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए समाज के सभी वर्गों के आगे आने की वकालत की है.
ऐसा नहीं है कि इस किताब में स़िर्फ राजनेताओं के ही लेख हैं. इस भारी-भरकम ग्रंथनुमा किताब में पांच खंड हैं, जिनमें देश के प्रमुख विचारकों एवं दलित चिंतकों के लेख हैं. इनमें असगर अली इंजीनियर, पी एस कृष्णन, प्रो. मुशीरुल हसन, डॉ. सतीनाथ चौधरी एवं इम्तियाज़ अहमद आदि प्रमुख हैं. इस पुस्तक के दूसरे खंड में पत्रकार कुरबान अली ने अपने लंबे शोधपरक आलेख में भारत में मुस्लिम समुदाय के साथ होने वाले भेदभाव को रेखांकित किया है. बेहद श्रमपूर्वक लिखे गए इस लेख में कुरबान अली ने भारत के मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन की असलियत और उसके कारणों के अलावा सांप्रदायिक हिंसा को आंकड़ों के आधार पर विश्लेषित किया है. कुरबान अली के लेख को पढ़ते हुए मुझे पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल से सुना एक संस्मरण याद हो आया. गुजराल साहब जब सूचना और प्रसारण मंत्री बने तो वह ज़ाकिर हुसैन साहब से मिलने गए और बातों-बातों में मंत्रालय में मुसलमान चपरासियों के बारे में बात निकली तो गुजराल साहब ने कहा कि वह अपने मंत्रालय में मुसलमान चपरासियों की संख्या पता करेंगे. यह सुनकर ज़ाकिर साहब ने कहा कि इस मुल्क में मुसलमान का राष्ट्रपति बनना तो आसान है, लेकिन चपरासी बनना बेहद मुश्किल. ज़ाकिर हुसैन साहब की यह बात हमारे समाज और मुल्क की एक ऐसी हक़ीक़त है, जिससे इंकार नहीं किया जा सकता है. इसके बाद गुजराल साहब ने अपने मंत्रालय में पता किया तो एक भी मुसलमान चपरासी नहीं मिला और जब सारे मंत्रालयों के बारे में जानकारी इकट्ठा की गई तो आंकड़े ज़ाकिर साहब के बयान की तस्दीक कर रहे थे. यह वाकया तीन-चार दशक पहले का है, लेकिन अब भी हालात में कोई सुधार हुआ हो, ऐसा लगता नहीं है. नौकरी की बात तो दूर, इस देश में अब भी मुसलमानों को ग़ैर मुस्लिम इलाक़े में किराए का मकान ढूंढने में नाको चने चबाने पड़ते हैं.
संतोष भारतीय द्वारा संपादित इस किताब में कई ऐसे लेख हैं, जो अब के समाज में दलितों और अल्पसंख्यकों की स्थिति का आईना दिखाते हैं. यह किताब इस लिहाज़ से भी अहम बन गई है कि इसमें एक ही मंच पर दलितों एवं अल्पसंख्यकों के बारे में विद्वानों, विचारकों और देश के नीति नियंताओं के विचार खुलकर सामने आए हैं. और, मुझे लगता है कि हिंदी में इस तरह की कोई किताब आज तक उपलब्ध नहीं है. इस वजह से इस किताब का एक स्थायी महत्व है और भविष्य में इसका उपयोग एक संदर्भ ग्रंथ के रूप में होगा. यह किताब हिंदी के अलावा अंग्रेजी में भी प्रकाशित हुई है.
(लेखक आईबीएन-7 से जुड़े हैं)
आपका यह प्रयोग मुझे बेहद पसंद आया. मैं इसे पढना और इससे जुड़े रहना आच्छा समझूंगा. विडियो पत्रिका का उपयोग भी दिलचस्प है.काफी व्यापक परिधि समेटी गयी है और हर विषय पर काम भर की सामग्री भी है. आगे इसके लिए सुझाव और सुधर भी कहूँगा.