शेयर बाज़ार तो पूंजी बाज़ार का एक विभाग मात्र है. असली जगह बैंक हैं, जहां फालतू रुपये लिए-दिए जाते हैं. बैंक में आप अपना खाता खोल लीजिए और जब आवश्यकता हो, बैंक के मैनेजर के पास जाकर रुपये उधार लेने की व्यवस्था कर लीजिए. बैंक तुरंत ही आपको रुपये उधार दे देगा. बशर्ते कि उसे पूरा इत्मीनान हो कि आप उधार लिए हुए रुपये समय पर वापस लौटा देंगे. बैंकों का दरअसल धंधा ही यही है. बैंक आपको कई तरीक़ों से उधार दे सकते हैं. आपके खातों में से आपको आपके जमा से ज़्यादा रुपये निकालने दे सकते है, जिसको ओवर ड्राफ्ट कहते हैं.
किसी दूसरे व्यक्ति से आपको रुपये लेने हैं. वह लिखकर आपको निर्धारित मुद्दत की हुंडी दे दे तो बैंक को यह विश्वास होने पर कि वह व्यक्ति मुद्दत पर हुंडी की रकम अदा कर देगा, बैंक आपकी हुंडी का रुपया उसी व़क्त दे देगा. इसको हुंडी बट्टा करना कहते हैं. इस तरह के कई मार्ग हैं, जिनके द्वारा आप बैंकों से रुपये किराए पर ले सकते हैं. बैंक का चार्ज समय और परिस्थिति के अनुसार कम या ज़्यादा होता रहता है. आपने कई बार सुना होगा, बैंक रेट बढ़ गया या बैंक रेट घट गया. इसका अर्थ होता है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया शासन की तरफ से सारी बैंकिंग प्रणाली का नियंत्रण करता है, फालतू रकम की बहुतायत या कमी के अनुपात से रुपये किराए पर देने के रेट में कमी या वृद्धि की घोषणा करता रहता है.
आप कहेंगे कि हमारे रुपये बैंक उधार दे देती है तो हम चाहे जब मांगें तो बैंक हमारे जमा रुपये देगा कहां से? बात सही है, आप रुपये मांगें, उसी वक्त हज़ारों लोगों के जो विभिन्न खाते हैं और जिनके रुपये जमा हैं, यदि वे सब एक साथ तमाम रुपये मांगने लगें तो कोई भी बैंक अपना उत्तरदायित्व कभी नहीं निभा सकता. कारण स्पष्ट है. हर बैंक निश्चित अनुपात में अपने जमा खातों के रुपयों में से हाजिर रोकड़ा या तरल निधि अपने पास रखता है. यदि सारा का सारा रुपया फालतू पड़ा रहे तो भी कोई बैंक कभी सफलतापूर्वक बैंकिंग का कारोबार कर नहीं सकता.
जब-जब बैंक रेट बढ़ता है, व्यापारी वर्ग को कठिनाई होती है. जो-जो रकमें उन्होंने उधार ले रखी हैं, वे या तो वापस मांग ली जाती हैं या और रुपये, आवश्यक हों तो भी, मिलने में कठिनाई होती है. वे अपना रोज़गार नहीं बढ़ा पाते हैं. यही वजह है कि व्यापारियों में, जब-जब ब्याज की दर बढ़ती है, काफी घबड़ाहट और चिंता फैल जाती है. और जब-जब बैंक ब्याज की दर घटती है, उनमें ख़ुशी की लहर दौड़ जाती है. बैंक रेट असल में, फालतू रकम कितनी मिल सकती है, इसको मापने का एक पैमाना है. अब प्रश्न यह है कि बैंकों के पास इतना फालतू रुपया उधार देने को आता कहां से है.
जब भी आप बैंकों में खाता खोलते हैं, आपको कुछ रकम अपने खातों में जमा करानी होती है. 300 रुपये या 500 रुपये से कम में आप बैंक में खाता खोल ही नहीं सकते. हर समय बैंक खाते में कम से कम कुछ रकम आपको जमा रखनी ही होती है. जैसा भी आपका व्यापार हो, उसी के हिसाब से हज़ार, दस हज़ार, लाख या अधिक रुपये जमा रहते हैं. आप जब चाहें, चैक काटकर रुपये ले लेते हैं, जमा भी कराते रहते हैं. इस तरह से हर एक व्यापारी को, अगर वह व्यापार करता है तो, सालाना लाखों या करोड़ों के देन-लेन में, अलग-अलग समय, कभी हज़ार, कभी पांच हज़ार, कभी एक लाख, कभी कम, कभी ज़्यादा रुपये अपने खाते में जमा रखने पड़ते हैं. इस तरह हज़ारों खाते हैं. किसी के खाते में कभी कम, किसी के खाते में कभी ज़्यादा, अलग-अलग दिनों में अलग-अलग रकम जमा रहती है. इन चालू खातों की जमा रकमों को संभाले रखने का बैंक आपसे कुछ भी किराया नहीं लेते हैं. इस तरह से लोगों के रुपये, जो वे बैंकों में जमा कराते हैं, उनके वे फालतू रुपये ही होते हैं. बैंक आपको, हमको, सबको आवश्कता पड़ने पर रुपये उधार देता है. बैंक इन रुपयों का किराया चार्ज करता है. यही ब्याज बैंकों की आमदनी है.
आप कहेंगे कि हमारे रुपये बैंक उधार दे देती है तो हम चाहे जब मांगें तो बैंक हमारे जमा रुपये देगा कहां से? बात सही है, आप रुपये मांगें, उसी वक्त हज़ारों लोगों के जो विभिन्न खाते हैं और जिनके रुपये जमा हैं, यदि वे सब एक साथ तमाम रुपये मांगने लगें तो कोई भी बैंक अपना उत्तरदायित्व कभी नहीं निभा सकता. कारण स्पष्ट है. हर बैंक निश्चित अनुपात में अपने जमा खातों के रुपयों में से हाजिर रोकड़ा या तरल निधि अपने पास रखता है. यदि सारा का सारा रुपया फालतू पड़ा रहे तो भी कोई बैंक कभी सफलतापूर्वक बैंकिंग का कारोबार कर नहीं सकता.
कारण, जो-जो रुपया फालतू आता रहता है, उसका किराया वह बैंक कमाता रहे तो अपने ख़र्चे वगैरह सब चलाकर कुछ कमाई भी कर लेता है. अगर उन रुपयों का किराया न उगाहा जाए तो किसी भी बैंक का चलना कभी भी संभव नहीं होगा. बैंक अपने पास जमा रुपयों में से उन रुपयों के किस भाग तक को उधार देने के उपयोग में ला सकता है, उसकी एक तालिका आर्थिक आचार्यों ने बना रखी है. यह तालिका कई वर्षों के अनुभव से सिद्ध है. इन सबके बावजूद कभी-कभी झूठी अफवाहें या अर्द्ध सत्य ख़बर फैल जाती हैं कि अमुक बैंक की आर्थिक स्थिति बिल्कुल डांवाडोल हो रही है. फलस्वरूप बहुसंख्या में लोग जिनके रुपये वहां जमा हैं, एक साथ अपने-अपने रुपये निकालने दौड़ पड़ते हैं. इसे बैंक रन या बैंक पर टूट कहा जाता है.
ऐसे अचानक टूट आने से परिणास्वरूप अच्छे-अच्छे बैंक भी अचानक अपनी देनदारी चुकाने में असमर्थ हो जाते हैं और पूंजी बाज़ार में आपात स्थिति खड़ी हो जाती है. बैंक को बचाने के हेतु भारत सरकार ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अंतर्गत कई अधिनियम बना रखे हैं, जिनके अनुसार, ऐसी आपात स्थिति पैदा होने पर रिजर्व बैंक तुरंत उस बैंक की मदद को पहुंच जाता है. उस बैंक द्वारा लोगों को उधार दिए हुए रुपयों के प्रमाणित घाण-पत्र ले-लेकर रिजर्व बैंक उतने-उतने रुपये उस बैंक को दे देता है, ताकि वह अपनी ज़िम्मेदारी या अपना उत्तरदायित्व निभा सके. अगर किसी बैंक ने बिना किसी जमानत के यों ही लोगों को रुपये उधार दे रखे हैं या दूसरे अन्य धंधों में रुपया अटका रखा है या सट्टेबाज़ी में नुक़सान उठा लिया है तो रिज़र्व बैंक से सहायता मिलना कठिन ही है. वरना जबसे बैंकिंग एक्ट भारत में लागू हुआ है, तबसे बैंकों के फेल होने की नौबत शायद ही आने पाए.