भारतीय जनता पार्टी ने जब मोदी को एक बड़े नेतृत्व की जिम्मेदारी सौंपी, तब कांग्रेस को खुश होना चाहिए था, क्योंकि पार्टी के पास एक टेलर मेड मुद्दा मिल गया था, जिसमें पार्टी आराम से बीजेपी को संप्रदायवाद को बढ़ावा देने वाली पार्टी कहकर खुद की धर्मनिरपेक्ष छवि को और मजबूत कर लेती. निश्चित रूप से यह ऐसा मैच होता, जो कांग्रेस के लिए फिक्स था. लेकिन अब जो चुनावी सर्वेक्षण सामने आ रहे हैं, उनसे लग रहा है कि चुनाव के बाद कांग्रेस का वोट शेयर और सीटें दोनों ही भाजपा के मुकाबले घटने वाली हैं.
लग रहा है कांग्रेस पार्टी के ऊपर कोई प्रेत छाया पड़ गई है. दरअसल, यह प्रेत छाया नरेंद्र मोदी की है. कांग्रेस के सभी वरिष्ठ प्रवक्ता और पार्टी के दूसरे बड़े नेता मीडिया के माध्यम से बस नरेंद्र मोदी को ही कोसने में लगे हुए हैं, लेकिन इसके उलट कांग्रेस जितना ही नरेंद्र मोदी की भर्त्सना कर रही है, मोदी जनता की नजरों में कमजोर पड़ने के बजाए उतने ही बड़े होते जा रहे हैं. इस स्थिति को लेकर कांग्रेस पसोपेश में पड़ गई है कि क्या वह मोदी को एक प्रांतीय नेता मानकर अनदेखी करे. उनकी राहुल गांधी से तुलना न करे या फिर अपने प्रवक्ताओं से कहे कि वह मोदी को फांसीवादी बताते हुए उनके खिलाफ और उग्र रूप घारण कर लें.
भारतीय जनता पार्टी ने जब मोदी को एक बड़े नेतृत्व की जिम्मेदारी सौंपी, तब कांग्रेस को खुश होना चाहिए था, क्योंकि पार्टी के पास एक टेलर मेड मुद्दा मिल गया था, जिसमें पार्टी आराम से बीजेपी को संप्रदायवाद को बढ़ावा देने वाली पार्टी कहकर खुद की धर्मनिरपेक्ष छवि को और मजबूत कर लेती. निश्चित रूप से यह ऐसा मैच होता, जो कांग्रेस के लिए फिक्स था.
लेकिन अब जो चुनावी सर्वेक्षण सामने आ रहे हैं, उनसे लग रहा है कि चुनाव के बाद कांग्रेस का वोट शेयर और सीटें दोनों ही भाजपा के मुकाबले घटने वाली हैं. राहुल की लोकप्रियता मोदी की तुलना में कम हो रही है. आखिर ऐसा क्यों हो रहा है. जो मतदाता इस बलिदानी परिवार में अपनी आस्था रखे हुए हैं, उनके मत-परिवर्तन की वजह क्या है.
इस सवाल का जवाब है देश की चरमराती अर्थव्यवस्था. देश की अर्थव्यवस्था तेजी से गर्त में जा रही है. मुद्रास्फीति की दर पिछले चार वर्षों में सबसे निचले स्तर पर है. चालू वित्तीय घाटा बढ़ता जा रहा है और बजट घाटा तकरीबन 5 प्रतिशत तक पहुंच गया है. रुपये की गिरती कीमत बता रही कि हमारी अर्थव्यवस्था बीमार अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रही है. रघुरामन राजन और घुवुरी सुब्बाराव जैसे अर्थशास्त्री तकरीबन मार्च 2012 से ही यह अंदेशा जता रहे हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था 1991 जैसे आर्थिक संकट की ओर बढ़ रही है. मौजूदा हालात में मुद्रास्फीति ही मतदाताओं को कांग्रेस के खिलाफ खड़ा कर रही है. रुपया जितना ही गिरता जाएगा, मुद्रास्फीति उतनी ही बढ़ेगी और हालात उतने ही खराब होंगे.
यह घाव पार्टी ने खुद अपने लिए तैयार किया है और इसके लिए कांग्रेस पार्टी का दोहरा चरित्र ही जिम्मेदार है. पार्टी की जो उदार अर्थशास्त्रियों की फौज है, वह चाहती है कि देश में विकास हो. राजकोष अनुशासित हो. मुद्रास्फीति की दर कम हो, जबकि पार्टी की समाजवादी विंग चाहती है कि पुनर्वितरण हो. यह घटक मानता है कि बढ़ती मुद्रास्फीति के पुनर्वितरण को संभाला जा सकता है, लेकिन हो रहा है इसके विपरीत. योजनाओं के वितरण के नाम पर पैसा खर्च हो रहा है. आश्चर्य की बात है कि देश में एक साथ इतने अर्थशास्त्री निर्णायक पदों पर आसीन हैं. समाजवादी शाखा इस मुगालते में है कि वे देश को एक वेलफेयर स्टेट बनाएंगे और वे इस बात की जल्दी में भी दिख रहे हैं.
पार्टी का यही घटक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी अनदेखा कर रहा है, क्योंकि उन्हें पता है कि मनमोहन सिंह का दौर अब खत्म हो रहा है और युवराज यानी राहुल गांधी की ताजपोशी की तैयारी हो रही है. हालांकि इस सरकार ने जो फैसले किए, उसके दुष्परिणाम यूपीए-2 की शुरुआत से ही दिख रहे हैं.
अब उन गलत फैसलों के दुष्परिणाम खुलकर सामने आ रहे हैं. आज देश अपनी चमक खो चुका है और इसकी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था भी अब बैकफुट पर है. हमारा सौभाग्य ही है कि रेटिंग एजसियों ने अभी हमें बख्शा हुआ है और हम रेटिंग में बहुत नीचे नहीं पहुंचे हैं.
लेकिन विडंबना तो यह है कि कोई भी अपनी गलती स्वीकारने को तैयार नहीं है. समाजवादी घड़ा अब फूड सिक्योरिटी बिल को लेकर अपनी पीठ थपथपा रहा है. और वे इसे विश्व की सबसे महान योजना बताने पर तुले हुए हैं, जबकि अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यह योजना पहले से चली आ रही कई अन्न योजनाओं में की एक कड़ी भर है. फिर इस योजना पर 45,000 करोड़ रुपए खर्च करने का क्या मतलब? छत्तीसगढ़, तमिलनाड़ु और केरल में इस योजना से बेहतर योजनाएं पहले से ही चल रही हैं.
अगर सरकार इस योजना को अपने वोट बैंक के तौर पर देख रही है तो इससे कोई लाभ नहीं मिलने वाला है. अर्थव्यवस्था नकारात्मक दिख रही है. और ऐसे समय में कांग्रेस पार्टी ने इतनी खर्चीली योजना शुरू की है, जो आने वाले दिनों में उसके लिए ही घातक साबित हो सकती है. यह मुश्किलें, जितनी कांग्रेस पार्टी के भीतर मौजूद समाजवादी विचारधारा वालों के कारण पैदा हुई हैं, उतनी ही बाहर मौजूद वामपंथियों के द्वारा भी. पूंजी पर हमारा नियंत्रण खत्म हो चुका है. आयात महंगा हो रहा है और सोने के प्रति हमारी लालसा बनी हुई है. कुल मिलाकर हम सेकुलर समाजवादी स्थिरता के दौर में पहुंच चुके हैं.