हिंदी फिल्मों में पिछले दिन जितने भी बॉयोपिक बने लगभग सभी सफल रहे, कुछ बेहद सफल तो कुछ ने औसत कमाई की. क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धौनी, मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर, बॉक्सर मैरी कॉम, धावक मिल्खा सिंह आदि पर बनी फिल्मों ने अच्छा बिजनेस किया. लेकिन इन बायोपिक्स में अगर मिल्खा सिंह को छोड़ दिया जाए तो सभी उन शख्सियतों को केंद्र में रखकर बनाई गईं, जो अपने-अपने क्षेत्र में अब भी सक्रिय हैं. संभव है फिल्मकारों के मन में इन शख्सियतों की सफलता की कहानी को दर्शकों के सामने पेश करने की मंशा रही हो, लेकिन इन फिल्मों से बॉयोपिक पूरा नहीं हो रहा, क्योंकि इनकी जिंदगी अभी शेष है.
धौनी अब भी क्रीज पर हैं, तो मैरी कॉम बॉक्सिंग रिंग में. इसी तरह से हालिया रिलीज फिल्म ‘संजू’ भी अभिनेता संजय दत्त की जिंदगी पर बनी है, लेकिन संजय दत्त की जिंदगी अभी काफी बाकी है. बावजूद इसके फिल्म ‘संजू’ भी अन्य बॉयोपिक्स की तरह बॉक्स ऑफिस पर हिट रही है और दूसरे ही हफ्त में उसने दो सौ करोड़ का बिजनेस पार कर लिया है. इस फिल्म को लेकर पहले दो हफ्ते में जिस तरह का मौहाल बना उसके आलोक में इस फिल्म को कसौटी पर कसना आवश्यक है.
राजकुमार हिरानी की छवि अच्छी फिल्मों के निर्माता के तौर पर है, उनके कहानी कहने का अंदाज बेहद निराला और दर्शकों को बांधनेवाला होता है. उनकी पिछली फिल्में ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’, ‘लगे रहे मुन्नाभाई’, ‘थ्री ईडियट्स’ और ‘पीके’ जैसी फिल्मों ने इस छवि को ठोस किया था. उनकी गुनती बॉलीवुड के उन निर्देशकों में होती है, जिनकी हर फिल्म बॉक्स आफिस पर सफल होती है. फिल्म ‘संजू’ में राजकुमार हिरानी ने कथा का जो वितान रचा है, वो फिल्म को सफल तो बनाता है लेकिन उनकी मंशा को सवालों के घेरे में लेकर भी आता है. पूरी फिल्म को इस तरह से बुना गया है कि इसमें संजय दत्त की छवि पीड़ित की बनकर उभरे. इसमें राजकुमार हिरानी ने बेहद सफाई से संजय दत्त के अलावा अमूमन सभी को गलत दिखाया है, चाहे वो सिस्टम हो, नेता हो, मंत्री हो, पुलिस हो, वकील हो, दोस्त हो या फिर समाज.
इसका एक फायदा यह होता है कि अगर किसी अपराधी के आसपास की सभी चीजें गलत दिखाई जाएं तो अपराधी का अपराध छोटा दिखाई देने लगता है या फिर उससे सहानुभूति होने लगती है. ‘संजू’ में राजकुमार हिरानी ने यही किया है. संजय के लिए सहानुभूति बटोरने के चक्कर में राजकुमार हिरानी मुंबई बम धमाकों के गुनहगार टाइगर मेमन के लिए भी सहानुभूति बटोरते नजर आते हैं, जब फिल्म में कहा जाता है कि ‘1992 के मुंबई दंगों में टाइगर मेमन का दफ्तर जला दिया गया था, इसलिए उसने 1993 के मुंबई बम धमाकों को अंजाम दिया.’
इस संवाद के जरिए फिल्मकार क्या साबित करना चाहते हैं? अगर फिल्मकार को ये याद रहता कि मुंबई बम धमाकों में 257 लोगों की जान गई थी और सात सौ से अधिक लोग जख्मी हुए थे तो शायद ये संवाद नहीं होता. इस संवाद से यही संदेश जाता है कि मुंबई बम धमाके एक क्रिया की प्रतिक्रया थे. एक पंक्ति के संवाद से फिल्मकार कई बार बड़ा संदेश दे देते हैं और अपनी सोच को भी सार्वजनिक कर देते हैं. फिल्म ‘मुक्कबाज’ में अनुराग कश्यप भी एक पंक्ति के डॉयलॉग से अपनी सोच को उजागर करते हैं, जब किरदार कहता है कि ‘वो आएंगें और भारत माता की जय बोलकर मार डालेंगे.’
दर्शकों की संवेदना को भुनाने के लिए फिल्म ‘संजू’ में संजय दत्त के पूर्व में की गई दो शादी और पहली शादी से पैदा हुई उनकी बेटी त्रिशाला का कहीं जिक्र नहीं है, लेकिन तीसरी शादी से उनके दो छोटे बच्चों को बार-बार दिखाया जाता है. छोटे बच्चों को इस वजह से कि वो अपेक्षाकृत अधिक संवेदना बटोर सकते हैं. हाय! छोटे बच्चों पर क्या असर होगा, छोटे बच्चे जब स्कूल जाएंगें तो उसके साथी क्या कहेंगे आदि आदि. त्रिशाला का जिक्र नहीं होना, ऋचा शर्मा का ब्रेन ट्यूमर से जंग और उस दौरान संजय दत्त के व्यवहार को नहीं दिखाना इसी संवेदनात्मक खेल का हिस्सा प्रतीत होता है.
जब ऋचा शर्मा अमेरिका में मौत से जंग लड़ रही थीं, तब संजय दत्त मुंबई में इश्क कर रहे थे. संवेदनहीनता की इंतहां. बावजूद इसके फिल्मकार इस अप्रिय प्रसंग को नहीं छूते हैं. अपनी पत्नी की मौत के बाद बेटी की कस्टडी को लेकर अदालती कार्यवाही का संकेत तक फिल्म में नहीं है. अगर उस दौर के संजय के व्यवहार को दिखाया जाता तो शायद ये फिल्म दर्शकों की इतनी सहानुभूति नहीं बटोर पाती. इसी तरह से रेहा पिल्लई के साथ संजय दत्त की शादी सात साल चली, इसके बाद उनसे तलाक हो गया लेकिन इसका भी जिक्र हिरानी ने अपनी फिल्म में नहीं किया. संजय दत्त के बुरे समय में उनकी बहन नम्रता और प्रिया दत्त उनके साथ, सुनील दत्त के साथ मजबूती से खड़ी रहीं लेकिन उस रिश्ते को फिल्म में कहीं भी रेखांकित नहीं किया गया. बहन की मौन उपस्थिति फिल्म में है.
इस फिल्म में कई आपत्तिजनक बातें भी हैं. मसलन संजय दत्त तीन सौ से अधिक महिलाओं के साथ हम बिस्तर होने की बात कहते हैं, लेकिन उसको भी इस तरह से पेश किया गया है जैसे वो फख्र की बात हो, चरित्रहीनता की नहीं. अपने सबसे अच्छे दोस्त की गर्लफ्रेंड के साथ शारीरिक संबंध बनाकर भी उसको कोई ग्लानि नहीं होती. अपनी पत्नी के सामने लेखिका का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री अनुष्का शर्मा से फ्लर्ट करता है. बात बात पर स्त्री अस्मिता का डंडा-झंडा लेकर खडी होनेवाली स्त्री विमर्शकारों का भी इसपर आपत्ति नहीं जताना हैरान करनेवाला है.
दरअसल इस फिल्म में संजय दत्त को इस तरह से पेश किया गया है कि दर्शक उसको मुजरिम ना समझें. 1982 में संजय दत्त के नशे में अपने घर के बाहर फायरिंग करने का जिक्र उस दौर की पत्रिकाओं से लेकर उनपर प्रकाशित पुस्तकों में है, लेकिन इस फायरिंग का जिक्र भी फिल्म में नहीं है. उस वक्त उनके पिता पर तो कोई खतरा नहीं था. उनको किसी तरह की कोई धमकी नहीं मिली थी. बाद में ये कहा गया है कि वो अपने पिता की रक्षा के लिए एके-56 खरीदता है, चलिए इस तर्क को क्षण भर के लिए मान भी लिया जाए तो जब वो जमानत पर पर जेल से बाहर आता है, उसके बाद अंडरवर्ल्ड के संपर्क में किस कारण से रहता है.
नासिक के एक होटल से आतंकवादी छोटा शकील से बात करता है. क्यों? इस मसले पर राजकुमार हिरानी की ये फिल्म लगभग खामोश है. जबकि ये बातचीत एजेंसियों ने रिकॉर्ड की थी और उसको अदालत में पेश भी किया गया था. इसके अलावा भी इस फिल्म में तमाम राजनीतिक घटनाक्रम को दरकिनार कर दिया गया है, जिसकी संजय दत्त की जिंदगी में अहमियत है. सुनील दत्त जब बेहद परेशान हो गए थे और उनकी पार्टी कांग्रेस के नेताओं ने उनसे कन्नी काटनी शुरू कर दी थी, तब वो बाल ठाकरे से मिले थे.
ठाकरे ने उनकी मदद का भरोसा दिया था, लेकिन एक वचन लिया था कि वो मुंबई उत्तर पश्चिम से लोकसभा चुनाव नहीं लडेंगे. दत्त साहब ने वहां से 1996 और 1998 का चुनाव नहीं लड़ा था. इसी तरह से पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने भी बाल ठाकरे को फोन कर सुनील दत्त की मदद करने को कहा था. एक बातचीत में चंद्रशेखर जी ने मेरे सामने इस वाकए का जिक्र किया था. संजय दत्त के केस में शरद पवार की क्या और कैसी भूमिका थी फिल्म इसपर भी खामोश है. क्यों शरद पवार के कांग्रेस से बाहर होने के बाद सुनील दत्त कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े थे.
संजय दत्त को पीड़ित दिखाने के चक्कर में राजकुमार हिरानी ने मीडिया के कंधे का भी बखूबी इस्तेमाल किया है. कहीं का ईंट और कहीं का रोड़ा जोड़कर हिरानी भानुमति का कुनबा बनाने की कोशिश करते हुए सामान्यीकरण के दोष का शिकार हो जाते हैं. वो हर दिन घर में आनेवाले समाचारपत्र की अपने पात्र के माध्यम से ड्रग्स से तुलना करवाते हैं. संजय दत्त को बचाने के चक्कर में हिरानी ने मीडिया को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है, जो कई बार बचकानी लगती है.
राजकुमार हिरानी ये अपेक्षा करते हैं कि कोई सेलिब्रिटी छोटा शकील या दाऊद से बात करे और मीडिया उसको प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ ना छापे, अदालत की तरह फैसले देते हुए खबर लिखी जाए. प्रश्नवाचक चिन्ह को इतनी अहमियत दी गई है जैसे कि पत्रकारिता बस उसी चिन्ह तक सिमटकर रह गई है. कुल मिलाकर देखें तो इस बयोपिक के माध्यम से हिरानी ने संजय दत्त को परिस्थितियों का शिकार दिखाने की कोशिश की है.