“मुझे नहीं पता कि मेरी कहानी कैसे समाप्त होगी ,लेकिन मेरी किताब  के पन्नों में कहीं नहीं लिखा होगा कि मैंने हार मान ली !”

मुनीबा मजारी का यह कथन मुझ पर और आप पर ,हमारे जैसे बहुत सारे लोगों पर सटीक बैठता है।  शायद इसी लिए मैंने जागते रहो फ़िल्म को चुना जिसमें उम्मीद की निष्कम्प लौ जगमगाती है।

21 सितंबर 1956 को रिलीज हुई जागते रहो फ़िल्म  राजकपूर की कलात्मक फ़िल्म थी। रणबीर राज कपूर ने अनेक व्यावसायिक फिल्में बनाई । आर के बैनर तले जागते रहो और बूट पालिश  कलात्मक फिल्मों की श्रेणी में आती हैं । आरके फिल्म्स यह नाम लेते ही फिल्म का लोगो याद आता है जिसमें एक हाथ में वायलिन लिए दो छवियां उभरती हैं एक लड़के और लड़की की।
फिल्म जागते रहो को किसी अन्तराष्ट्रीय फिल्म उत्सव में भी सराहा और सम्मानित किया गया था ,उसी वर्ष सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली फिल्म को भी विख्यात कांस फिल्म उत्सव में उल्लेखनीय स्थान मिला। राजकपूर की इस फिल्म को अन्य फिल्मों की तरह व्यावसायिक सफलता नहीं मिली पर उन्हें शायद रचनात्मक संतोष मिला ,ये फिल्म बंगला में भी बनी –अहो एक रात्रे नाम से ।
कलात्मक फिल्मों का यथार्थ सामाजिक तानेबाने से ही जुड़ता है .इस फ़िल्म की कहानी की पृष्ठभूमि  मानों उस समय के समाज की प्रतिध्वनि थी। हद मुश्किल से हासिल आजादी के दस साल के अंतराल में भ्रष्टाचार व नैतिक मूल्यों का पतन  देख रहे समाज की विवशता को उकेरती यह फ़िल्म हमें अंदर तक झिंझोड़ जाती है ।इस श्वेत श्याम फ़िल्म का टेंपरामेन्ट व्यंग प्रधान है ।
फिल्म के प्रोड्यूसर राज कपूर ,स्टोरी, स्क्रीनप्ले और डायरेक्शन शंभू मिश्रा और अमित मिश्रा, डायलॉग के. अब्बास, संगीत -सलिल चौधरी, गीतकार- शैलेंद्र और प्रेम धवन का ,फिल्म में कलाकार थे -राज कपूर ,प्रदीप कुमार ,निमो , मोतीलाल ,सुमित्रा देवी ,इफ्तिखार , आरती विश्वास ,पहाड़ी सान्याल, नाना पल्सीकर, सुलोचना चटर्जी,डेजी ईरानी और फिल्म के अंतिम दृश्य में नरगिस। सनद रहे कि उस समय राज कपूर व् नरगिस के व्यक्तिगत जीवन में भी उथल पुथल थी और उनके रास्ते अलग हो रहे थे। तभी फिल्म की शुरुआत में उनके नाम का उल्लेख नहीं है  पूरी फिल्म को राज कपूर आंखों और सशक्त भावपूर्ण अभिनय द्वारा बांधते हैं।


कहानी घंटाघर की घड़ी से शुरू होती है जिसमें रात के 12:50 हैं, ट्राम गुजर रही है।
पहला पात्र चौकीदार है जो जोर -जोर से चिल्लाता है -जागते रहो और उसके कहते ही दूसरे चौकीदार की आवाज, गली के दूसरे मोड़ पर दूसरे चौकीदारों की आवाज जागते रहो ,दो सोए हुए चौकीदार भी नींद में बोलते हैं जागते रहो ।
फ़िल्म दृश्य दर दृश्य हमें अपने समय का ,समाज का और सिरे से गायब हुई देशभक्ति का परिचय दे रही है।अपने निर्धारित कर्म का ठीक से निबाह नहीं करना भी तो देशद्रोह है।

फिल्म का  नायक एक धोती वाला निर्धन ग्रामीण है ,शहर आया है रोजगार की तलाश में।
अब हर दृश्य में कटाक्ष देखिये ।
सुनसान सड़क पर एक भोला ,भला सा दिखता ग्रामीण चला जा रहा है ,धोती के ऊपर पुराना कोट उसकी यह विचित्र वेशभूषा चेहरा -मोहरा मुझे कोर्ट में आये ग्रामीण की याद दिलाती है,जो पड़ोसी के खेत में चर आई अपनी गाय को कोसते हैं। जिसके पास छोटी सी पोटली में चने हैं ,वह जैसे ही सड़क पर खाने बैठता है तो गली के श्वान आ जाते हैं ,जिन्हें वह पुचकारता है पर चौकीदार उसे संशय से देख उस पर अपने डंडे का जोर चला देता है ,शहर से इस पहली क्रूर मुलाकात की छवि हम उस भोले भाले ग्रामीण की आँखों में उतरते हुए देखते हैं ।
उसे पानी की तेज प्यास लगती है पर उसे कहीं पानी नहीं दिखता गले में और कलाई में ताजे फूलों की माला लपेटे मोतीलाल शराबी की भूमिका में है वह जगह जगह टकराता है और पहला गाना -जिंदगी ख्वाब है, ख्वाब में झूठ क्या और भला सच है क्या ।
शराबी का बटुआ सड़क पर गिरता है ,ये भोला उसे बटुआ उठा कर देता है ।नशे की हालत में अपनी गाड़ी में बैठता शराबी उसे पैसे देता है पर उनका ड्राइवरउस पैसे को छीन लेता है और उसे चपत भी लगा देता है । शहर से मिली यह दूसरी बेरुखी उसकी आँखों में साफ़ उभरती है ,यहीं दर्शक की सोच की प्रक्रिया शुरू होती है ,अगर उच्च पद पर बैठा व्यक्ति हमारी सुन भी ले तो नीचे के स्तर पर अधिकारियों, कर्मचारियों का भ्रष्टाचार उसे मार डालता है।


भूखा प्यासा नायक एक टपकते नल को देख एक बिल्डिंग के अहाते में पानी पीने की मंशा से दबे पाँव घुसता तो है पर चौकीदार के चोर- चोर चिल्लाने पर लोगों के घरों में घुस जाता है और देखता है रात के काले कारनामे और यहीं फिल्म टर्न लेती है ।इज्जत आबरू के चोर, बीवी के गहने चुराने वाले ,शराब के नशे में भला -बुरा कहने वाले, नकली शराब बनाने का धंधा करने वाले चोर ,घुड़दौड़ के रसिया को अपनी ही बीवी के गहने चुराते , नकली नोट बनाने वाले सेठ जी , मिलावट खोर ,चंदा ऐंठते वॉलिंटियर्स ।
और ये सब उस भोले को चोर कहते हैं ,एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते हैं ,अपने काले कारनामों को छुपाने के लिए द्वन्द- फंद- जुगत करते हैं,भ्रष्टाचार हर कोने में है । हम माने या न माने एक छोटे से झूठ से भ्रष्टाचार का बीज डल जाता है । फिल्म आगे चलती है, एक गाने के बोल सुनिए –एवें दुनिया देवें दुहाई /झूठा पौंदी शोर /जे अपने दिल दे पूछ के वेखो /कौन नहीं है चोर …..हक दूजे का मार मार के / बणदे लोग अमीर /मैं ऐनु कहंदा चोरी /दुनिया कहती तकदीर ….सच्चे फांसी चढ्दे देखे /झूठा मौज उडावे /लौकी कहदे रब की माया मैं कहता अन्याय…देकी मै झूठ बोल्या कोई ना ……
पूरी फिल्म एक उद्देश्य को लेकर है कि स्वतंत्रता के बाद हमने उसे सम्भाल कर रखा या व्यर्थ बहा रहे थे उस पानी पर टपकती बूंदों जैसे ।
कहीं पढ़ा था ,जिसको हम जागरण कहते हैं— सुबह नींद से उठकर— वह अधूरा जागरण है। और अधूरा भी कीमती नहीं है; क्योंकि व्यर्थ तो दिखाई पड़ता है और सार्थक दिखाई नहीं पड़ता। कुड़ा—करकट तो दिखाई पड़ता है, हीरे अंधेरे में खो जाते हैं। खुद तो हम दिखाई नहीं पड़ते कि कौन हैं और सारा संसार दिखाई पड़ता है।
फिल्म अपने अंत की ओर चलती है ।तथाकथित चोर मोहरा बनता है ,लगभग पकड़ा भी जाता है तब पहली बार चिल्लाता है कि चोर है कौन तुम या मैं । पूरी फिल्म में मौन रहने वाला नायक इस समाज की असलियत देख कर बौरा जाता है ,तब वह चिल्लाता है।

भोर की लालिमा चहक रही है पर उसके मन में अँधेरा घर कर चुका है ,थके क़दमों से वह नन्हीं मासूम डेजी ईरानी के घर घुसता है जो उसे मरहम भरे शब्दों से ,भोर का ,नई आशा का अहसास कराती है। तभी दूर मंदिर के घंटे बजते हैं –जागो मोहन प्यारे की मधुर आवाज़ से खिंचता हुआ भोला उस नवयुग के आह्वान करते गीत से जुड़ जाता है।

अंतिम दृश्य कालजयी है –देवी जैसी आकृति वाली ममतामयी स्त्री (नर्गिस) के सामने घुटने टिकाये अपनी अंजुरी फैलाये प्यास बुझाता भोला (राज कपूर) ।
सौजन्य:ब्रज श्रीवास्तव

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