kisaan200 किलोमीटर का लॉन्ग मार्च. इसके बावजूद सड़क पर न गन्दगी फैली और न शहरवालों की नींद हराम हुई. न बच्चों की परीक्षा में खलल पड़ा, न कोई खोमचा-ठेला वाला लूटा गया. ऐसा लॉन्ग मार्च, ऐसा आन्दोलन तो कोई सच्चा गान्धीवादी ही कर सकता है. देश की मौजूदा राजनीतिक विडंबना देखिए कि किसानों के लॉन्ग मार्च को भी राजनीति के एक धड़े और उनके समर्थकों ने शक की निगाह से देखा.  दयनीय स्थिति में पहुंच चुके किसानों को राजनीतिक एजेंट तक कहा गया. ऐसे सवाल उछाले गए जिससे साबित हो कि यह किसान आन्दोलन राजनीतिक बन जाए.

लेकिन, किसानों और महाराष्ट्र की आम जनता ने यह साबित कर दिया कि यह आन्दोलन पूर्णत: जनता का, जनता के लिए और जनता के द्वारा प्रेरित था. यह आन्दोलन किसानों का जरूर था, लेकिन जैसे ही यह मुंबई पहुंचा, वहां स्थानीय लोगों ने इन किसानों का स्वागत किया. स्थानीय मुंबईकरों ने किसानों के लिए खाना-पानी-दवा की व्यवस्था की. शुरुआत के 6 दिनों तक मीडिया ने किसानों के इस आन्दोलन को नजरअन्दाज किया. लेकिन, जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को मजबूरन किसानों से मिलने और बातचीत करने की घोषणा करनी पड़ी, तब जाकर अंतिम दिन मीडिया भी नींद से जागा.

कृषि आय 44 फीसदी कम हुई

महाराष्ट्र में भारतीय किसान संघ ने नासिक से लेकर मुंबई तक किसानों के एक लंबे मार्च का आयोजन किया. सात दिन तक चलने वाली इस मार्च में शिरकत करने के लिए पूरे महाराष्ट्र से किसान आगे आए. 7 मार्च को नासिक से शुरू हुआ किसानों का यह मार्च 12 मार्च को मुंबई पहुंचा. किसानों ने एलान किया था कि वो मुंबई में राज्य की विधानसभा का घेराव करेंगे और अपनी आवाज़ राजनेताओं   तक पहुंचाने की कोशिश करेंगे. किसानों की मांग है कि बीते साल सरकार ने कर्ज़ मा़फी का जो वादा उनसे किया था, उसे पूरी तरह से लागू किया जाए. किसानों का कहना है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू किया जाए और गरीब और मझौले किसानों के कर्ज़ मा़फ किए जाएं. महाराष्ट्र के आर्थिक सर्वे के मुताबिक, बीते सालों में कृषि विकास दर कम हुई है. खेती से होने वाली आय 44 फीसदी तक कम हो गई है. कपास, अनाज और दलहन से होने वाली आय दिन प्रतिदिन कम हो रही है.

किसान आदिवासी एक साथ

दरअसल, महाराष्ट्र में हज़ारों किसान और आदिवासी नासिक से 180 किलोमीटर पैदल मार्च करते हुए मुंबई के आज़ाद मैदान पहुंचे. किसान चाहते थे कि वन अधिकार कानून, 2006 सही ढंग से लागू हो, स्वामीनाथन आयोग की स़िफारिशों को लागू किया जाए, सरकार कर्ज़ मा़फी के वादे को पूरी तरह से लागू करे. इन किसानों में बड़ी संख्या आदिवासी किसानों की भी थी. यह किसानों के साथ ही आदिवासियों का भी आन्दोलन था, जो जंगल-जमीन पर अपना अधिकार चाहते हैं. ये लोग 2006 में पास हुए वन अधिकार कानून को ठीक ढंग से लागू किए जाने की मांग कर रहे थे. ये किसान कर्ज माफी भी चाहते हैं. कर्ज माफी को लेकर महाराष्ट्र में जो सरकारी आंकड़े हैं, वे असलियत से कोसों दूर हैं. जिला स्तर पर बैंक खस्ताहाल हैं और इस कारण कर्ज़ मा़फी का काम अधूरा रह गया है. इस तरह की स्थिति में बैंकों को जितने किसानों को लोन देना चाहिए, उसका दस ़फीसदी भी अभी नहीं हो पाया है. प्रदर्शन कर रहे किसानों में एक बड़ी संख्या उन किसानों की है, जिन्होंने स्थानीय साहूकारों से लोन लिया हुआ है. ऐसे में किसानों को सरकारी कर्ज़मा़फी का कितना फायदा मिल पाएगा, कहना मुश्किल है.

6 महीने की मोहलत

आन्दोलन के सातवें दिन महाराष्ट्र सरकार और किसानों के बीच समझौता हो गया. किसानों ने 7 मार्च को शुरू किया अपना आंदोलन वापस ले लिया. विधान भवन में मुख्यमंत्री देवेंद्र ़फडणवीस की अध्यक्षता में महाराष्ट्र सरकार और किसानों के प्रतिनिधिमंडल के बीच एक बैठक हुई. इस बैठक के बाद महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र ़फडणवीस ने कहा कि हमने किसानों की सभी मांगें मान ली हैं और उन्हें भरोसा दिलाने के लिए एक लिखित पत्र भी जारी किया है. सरकार ने मांगों को पूरा करने के लिए किसानों से छह महीने का समय मांगा है. महाराष्ट्र सरकार के मुताबिक किसानों की शिकायत थी कि जो हमारी ज़मीन है, उससे कम उनके नाम पर है. यानी जितनी ज़मीन वो जोतते हैं, वो उनके नाम पर होने चाहिए. सरकार की तरफ से कहा गया कि मुख्यमंत्री ने इस मांग को मान लिया है और इस मांग को छह महीने में पूरा करने की कोशिश की जाएगी.

किसानों की मांगों को पूरा करने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने एक कमिटी बनाई है, जिसमें छह मंत्री शामिल हैं. कमिटी में चंद्रकांत पाटिल, पांडुरंग फुडकर, गिरीश महाजन, विष्णु सवारा, सुभाष देशमुख और एकनाथ शिंदे शामिल हैं. अब ये देखना होगा कि यह कमिटी कब और क्या सिफारिश देती है. लेकिन, इतना तय है कि किसानों का भाग्य एक बार फिर कमिटियों के चक्कर में कैद हो गया है. इस आन्दोलन ने यह भी साबित किया कि अगर समय रहते सरकारें किसानों की मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं दे पाती है, तो आने वाले समय में इस तरह का किसानों का लॉन्ग मार्च पूरे देश में देखने को मिल सकता है. फिर उस स्थिति से निपटना सरकारों के लिए बड़ी चुनौती साबित होगी.

स्वामीनाथन आयोग की स़िफारिशें क्या हैं

स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक, फसल उत्पादन मूल्य से पचास प्रतिशत ज़्यादा दाम किसानों को मिले, किसानों को अच्छी क्वालिटी के बीज कम दामों में मुहैया कराए जाएं, गांवों में किसानों की मदद के लिए विलेज नॉलेज सेंटर या ज्ञान चौपाल बनाया जाए, महिला किसानों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड जारी किए जाएं, किसानों के लिए कृषि जोखिम ़फंड बनाया जाए, ताकि प्राकृतिक आपदाओं के आने पर किसानों को मदद मिल सके, सरप्लस और इस्तेमाल नहीं हो रही ज़मीन के टुकड़ों का वितरण किया जाए, खेतिहर ज़मीन और वनभूमि को गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए कॉरपोरेट को न दिया जाए, फसल बीमा की सुविधा पूरे देश में हर फसल के लिए मिले, खेती के लिए कर्ज़ की व्यवस्था हर ग़रीब और जरूरतमंद तक पहुंचे, सरकार की मदद से किसानों को दिए जाने वाले कर्ज़ पर ब्याज़ दर कम कर चार फीसदी की जाए, कर्ज़ की वसूली में राहत, प्राकृतिक आपदा या संकट से जूझ रहे इलाकों में ब्याज़ से राहत हालात सामान्य होने तक जारी रहे, लगातार प्राकृतिक आपदाओं की सूरत में किसान को मदद पहुंचाने के लिए एक एग्रीकल्चर रिस्क फंड का गठन किया जाए आदि.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here