मुख्यमंत्री सार्वजनिक सभाओं एवं अन्य स्थानों पर यह कहते नहीं थकते कि वे जनता के दास हैं, पर सच्चाई यही है कि आम जनता के सामने उनका रवैया तानाशाह जैसा ही होता है. यहां तक कि वे अपने दल के नेताओं को भी खास तवज्जों नहीं देते और कार्यकर्त्ताओं एवं छोटे नेताओं की उपेक्षा करना तो उनकी आदतों में शुमार है. शायद यही कारण भी है कि झारखंड में पहली बार बहुमत वाली सरकार के तीन साल पूरे हो जाने के बाद भी एक मुख्यमंत्री के रूप में रघुवर दास जनता एवं अपने ही दलों एवं नेताओं के बीच लोकप्रिय नहीं हो सके हैं. मुख्यमंत्री के व्यवहार एवं अपनी उपेक्षा की शिकायत भाजपा कार्यकर्त्ताओं एवं नेताओं ने पार्टी आलाकमान से भी अनेको बार की है.

raghuwar dasझारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास आजकल काफी गुस्से में नजर आते हैं. वो चाहे विधानसभा हो, अधिकारियों के साथ बैठक या फिर पार्टी कार्यकर्ताओं की बात सुनना, रघुवर दास की भौहें इन दिनों हर समय चढ़ी ही होती हैं. इनके करीबियों को भी यह बात समझ में नहीं आ रही है कि मुख्यमंत्री के गुस्से का कारण क्या है. रघुवर दास के अनियंत्रित गुस्से की एक बानगी हाल में देखने को मिली, जब विधानसभा की कार्यवाही के दौरान किसी मुद्दे को लेकर विपक्ष के हंगामे के बीच मुख्यमंत्री का चेहरा तमतमा गया और उन्होंने नेता प्रतिपक्ष हेमंत सोरेन के लिए सदन में ही असंसदीय भाषा का प्रयोग कर दिया.

रघुवर दास ने कहा, ‘सा… को मिर्च क्यों लग रहा है.’ हालांकि मुख्यमंत्री ने बाद में इससे साफ इंकार कर दिया कि उन्होंने हेमंत सोरेन के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग किया है. रघुवर दास ने कहा कि उन्होंने कभी भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल नहीं किया. मुख्यमंत्री रघुवर दास तो वरीय अधिकारियों के लिए भी ‘अरे’-‘तेरे’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. जब आला अधिकारियों के सामने ही उनका रवैया इतना अव्यवहारिक है, तो फिर आमलोगों के लिए उनके संबोधन के बारे में तो सोचना भी बेमानी है.

मुख्यमंत्री सार्वजनिक सभाओं एवं अन्य स्थानों पर यह कहते नहीं थकते कि वे जनता के दास हैं, पर सच्चाई यही है कि आम जनता के सामने उनका रवैया तानाशाह जैसा ही होता है. यहां तक कि वे अपने दल के नेताओं को भी खास तवज्जों नहीं देते और कार्यकर्त्ताओं एवं छोटे नेताओं की उपेक्षा करना तो उनकी आदतों में शुमार है. शायद यही कारण भी है कि झारखंड में पहली बार बहुमत वाली सरकार के तीन साल पूरे हो जाने के बाद भी एक मुख्यमंत्री के रूप में रघुवर दास जनता एवं अपने ही दलों एवं नेताओं के बीच लोकप्रिय नहीं हो सके हैं.

मुख्यमंत्री के व्यवहार एवं अपनी उपेक्षा की शिकायत भाजपा कार्यकर्त्ताओं एवं नेताओं ने पार्टी आलाकमान से भी अनेको बार की है. मुख्यमंत्री रघुवर दास के व्यवहार, तानाशाही एवं अड़ियल रवैये के कारण पार्टी का जनाधार तेजी से घट रहा है. मुख्यमंत्री रघुवर दास के शासनकाल में ही राज्य में दो उपचुनाव हुए और दोनों ही चुनावों में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी, जबकि सरकार ने चुनाव जीतने के लिए अपनी ओर से पूरी ताकत झोंक दी थी. अब तो पार्टी के अंदर दबे सुर में यह भी चर्चा चल रही है कि पार्टी अगर आगामी विधानसभा चुनाव रघुवर दास के नेतृत्व में लड़ी, तो पार्टी को भारी नुकसान का सामना करना पड़ सकता है.

सीएम के गुस्से का शिकार बनते नेता

मुख्यमंत्री की झल्लाहट का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि भाजपा कार्यसमिति की बैठक के दौरान पार्टी की वरिष्ठ नेता सीमा शर्मा को प्राथमिक सदस्यता से निलंबित कर दिया गया. सीमा शर्मा का कहना है कि वे पार्टी की बात को पार्टी के अंदर नहीं उठाएंगी तो कहां उठाएंगी. राज्य के मुखिया किसी की बात ही नहीं सुनना चाहते.

हमनें संगठन की बात संगठन के अंदर ही कही, पर यह बात बाहर कैसे आई, यह मुझे पता नहीं. उन्होंने कहा कि संगठन की रीति-नीति और परम्पराओं के विरुद्ध कोई काम नहीं किया, लेकिन मुख्यमंत्री को इतना गुस्सा क्यों आया, यह बात मेरी समझ से परे है. इससे तो यही प्रतीत होता है कि राज्य के मुखिया कोई बात सुनना ही नहीं चाहते. पार्टी से निलंबित एक सदस्य रवीन्द्र तिवारी ने अपनी निलंबन प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए सीधे तौर पर सरकार के मुखिया को ही जिम्मेदार ठहराया. उन्होंने कहा कि पार्टी के नियमों को ताक पर रखकर इनका निलंबन किया गया.

मुख्यमंत्री के करीबी सूत्र बताते हैं कि अपने द्वारा लिए गए महत्वपूर्ण फैसलों के भारी विरोध के कारण रघुवर दास को ‘बैकफुट’ पर आ जाना पड़ा है, वहीं पार्टी में उनके विरोधियों का कद लगातार बढ़ता जा रहा है, शायद यही कारण है कि मुख्यमंत्री हर समय खीज और गुस्से में ही दिखते हैं. सीएनटी-एसपीटी संशोधन विधेयक पर तो रघुवर दास की भारी किरकिरी हुई ही, राष्ट्रपति द्वारा भूमि अधिग्रहण बिल लौटाए जाने के कारण भी मुख्यमंत्री को भारी फजीहत का सामना करना पड़ रहा है.

विपक्षी दलों ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया और इसके जरिए रघुवर दास को आदिवासी एवं मूलवासी विरोधी बताते हुए जनता में यह संदेश फैलाया कि मुख्यमंत्री आदिवासियों की जमीनें लेकर उद्योगपतियों को देने की साजिश रच रहे हैं, इससे आदिवासी एवं मूलवासी भूमिहीन हो जाएंगे और इन्हें रोजी-रोटी की तलाश में दूसरे राज्यों की ओर पलायन करना पड़ेगा. विरोधियों ने इसे बड़ा मुद्दा बनाकर एक जनआंदोलन भी खड़ा कर दिया.

इससे भाजपा को बड़ा झटका लगा. यही कारण भी रहा कि दुमका के आदिवासी बहुल विधानसभा क्षेत्र लिट्टीपाड़ा उपचुनाव में पूरी ताकत झोंकने के बाद भी भाजपा झामुमो के किले को भेद नहीं पाई और उसे बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा. इस परिणाम के बाद भाजपा के आला नेताओं की भी नींद खुली. इसके बाद प्रधानमंत्री मोदी एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के आदेश पर कराए गए आंतरिक सर्वे ने भाजपा की नींद हराम कर दी. उसी सर्वे के बाद आनन-फानन में राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को दिल्ली तलब किया गया और पार्टी आलाकमान ने उनसे झारखंड की राजनीति पर लंबी चर्चा की.

नवम्बर 2017 में केन्द्र द्वारा भूमि अधिग्रहण विधेयक लौटाने से मुख्यमंत्री दास को बड़ा झटका लगा था और उन्होंने इसे लेकर अधिकारियों को खूब खरी-खोटी भी सुनाई. दरअसल, यह विधेयक भी मुख्यमंत्री के लिए अतिमहत्वपूर्ण था और यह मोमेंटम झारखंड के सपनों से भी जुड़ा हुआ था. इस विधेयक को विधानसभा में पारित कराकर भेजा गया था. अगर इस पर केन्द्र की मुहर लग जाती, तो राज्य सरकार को यह अधिकार हो जाता कि वो किसी उद्योग या जनहित के कार्यों जैसे अस्पताल, कॉलेज एवं अन्य के लिए किसी भी रैयत भूमि का अधिग्रहण कर सकती है. राज्य सरकार ने मोमेंटम झारखंड के तहत हजारों औद्योगिक घरानों से एमओयू तो किया, लेकिन उन उद्योगों को स्थापित करने के लिए जमीनें नहीं मिल पा रही हैं.

इसके कारण राज्य सरकार का भूमि बैंक नहीं बन पा रहा है और वह उद्योगपतियों को जमीन नहीं दे पा रही है. भारी प्रचार-प्रसार के बाद भी राज्य में एक भी बड़ा उद्योग स्थापित नहीं होने के कारण मुख्यमंत्री जनता के सवालों का जवाब नहीं दे पा रहे हैं. राज्य की आम जनता को अब यह अहसास होने लगा है कि मोमेंटम झारखंड भी मुख्यमंत्री के हसीन सपनों की ही तरह है. मोमेंटम झारखंड के आयोजन में हुए व्यापक घोटाले की खबर भी मुख्यमंत्री रघुवर दास के लिए बड़ी चिंता की बात है. इस घोटाले का पर्दाफाश होने और खबरों की सुर्खियां बनने के कारण मुख्यमंत्री दास की नींद गायब हो गई है. मुख्यमंत्री चूंकि हमेशा ज़ीरो टॉलरेंस की बात करते आए हैं, इसलिए इन्हीं के शासनकाल में घोटाला उजागर होने के कारण जनता के बीच अपनी छवि खराब होने के डर ने उनकी झल्लाहट और बढ़ा दी है.

इस योजना में केवल प्रेस रिलीज बनाने का काम दो कंपनियों को दिया गया था और इस काम के एवज में उन्हें साढ़े चार करोड़ रुपए का भुगतान भी किया गया था. वहीं एक लखटकिया कंपनी के साथ 2900 करोड़ रुपए का एमओयू किया गया और इस कंपनी को डेढ़ सौ एकड़ जमीन राज्य सरकार ने कौड़ियों के मोल दी. रघुवर सरकार द्वारा आयोजित माइंस शो भी पूरी तरह से विफल रहा. राज्य के खदानों को निजी उद्यमियों को देने के लिए माइंस शो का आयोजन किया गया, लेकिन किसी उद्यमी ने इसमें रुचि नहीं ली. माइंस शो के इस आयोजन पर लगभग 10 करोड़ रुपये से भी अधिक खर्च हुए. राज्य में व्याप्त व्यापक भ्रष्टाचार के कारण भी उद्यमी झारखंड से अपना मुंह मोड़ रहे हैं.

एक तरफ मुख्यमंत्री के सभी फैसले असफलताओं की भेंट चढ़ते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर रघुवर दास का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. मुख्यमंत्री रघुवर दास अपने विरुद्ध कोई भी बात सुनना नहीं चाहते. पार्टी के नेता एवं कार्यकर्त्ता भी उनके इस तानाशाही भरे रवैये से काफी खफा रहते हैं. हद तो तब हो गई जब रांची से प्रकाशित एक अखबार द्वारा मुख्यमंत्री के विरुद्ध खबर प्रकाशित करने पर उसका सरकारी विज्ञापन ही बंद कर दिया गया. अखबारों पर नकेल कसने के लिए रघुवर दास सरकारी विज्ञापनों का खुलकर इस्तेमाल कर रहे हैं.

मुंडा के बढ़ते क़द से बढ़ रही रघुवर दास की चिंता

मुख्यमंत्री की निराशा और हताशा तब और बढ़ गई जब गुजरात विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री दास की जगह पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को भाजपा आलाकमान ने ज्यादा अहमियत दी. गुजरात में रघुवर दास की एक सभा का भी आयोजन पार्टी द्वारा नहीं करवाया गया, वहीं दलित एवं आदिवासी बहुल कुछ विधानसभा क्षेत्रों में मुंडा की दर्जनों सभाएं कराई गईं. परिणामों में मुंडा की सभाओं का प्रभाव भी दिखा. इसके बाद तो रघुवर दास को अपनी गर्दन पर हमेशा तलवार लटकती दिख रही है.

इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि रघुवर दास भाजपा नेताओं के कारण नहीं, बल्कि अपने आका अमित शाह के आशीर्वाद के कारण बचे हुए हैं. वैसे यह भी चर्चा जोरों पर है कि 2019 में होने वाला विधानसभा चुनाव भाजपा दास के नेतृत्व में नहीं लड़कर किसी आदिवासी नेता के नेतृत्व में ही लड़ेगी, ताकि नाराज आदिवासियों को भाजपा अपने पक्ष में गोलबंद कर सके. मुंडा के बढ़ते कद को रघुवर दास बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं. गौरतलब है कि मुंडा और रघुवर के बीच छत्तीस का रिश्ता है और दोनों ही एक-दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते. दोनों के बीच लगातार बढ़ रही खाई का प्रभाव पार्टी संगठन पर भी पड़ रहा है और पार्टी का जनाधार तेजी से घटता जा रहा है.

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