नासिक के एक मर्मनिष्ठ, अग्निहोत्री ब्राह्मण थे, जिनका नाम मुले शास्त्री था. उन्होंने 6 शास्त्रों का अध्ययन किया था और ज्योतिष तथा सामुद्रिक शास्त्र में भी पारंगत थे. वे एक बार नागपुर के प्रसिद्ध करोड़पति श्री बापूसाहेब बूटी से भेंट करने के बाद अन्य सज्जनों के साथ बाबा के दर्शन करने मस्जिद में गये.
ईश्वर अवतार का ध्येय साधुजनों का परित्राण और दुष्टों का संहार करना ही है. लेकिन संतों का कार्य तो सर्वथा भिन्न ही है. सन्तों के लिए साधु और दुष्ट प्रायःएक समान ही है. यथार्थ में उन्हें दुष्कर्म करने वालों की प्रथम चिन्ता होती है और वे उन्हें उचित पथ पर लगा देते है. सन्तों के हृदय में भगवान श्रीहरि विष्णु निवास करते है. वे उनसे पृथक नहीं हैं. साई भी उसीकोटि में हैं, जो कि भक्तों के कल्याण के निमित्त ही अवतीर्ण हुए थे. वे ज्ञानज्योति स्वरुप थे और उनकी दिव्यप्रभा अपूर्व थी. उन्हें समस्त प्राणियों से समान प्रेम था. वे निष्काम तथा नित्यमुक्त थे. उनकी दृष्टि में शत्रु, मित्र, राजा और भिक्षुक सब एक समान थे. भक्तों के लिये उन्होंने अपना दिव्य गुणसमूह पूर्णतः प्रयोग किया और सदैव उनकी सहायता के लिये तत्पर रहे.
नासिक के एक मर्मनिष्ठ, अग्निहोत्री ब्राह्मण थे, जिनका नाम मुले शास्त्री था. उन्होंने 6 शास्त्रों का अध्ययन किया था और ज्योतिष तथा सामुद्रिक शास्त्र में भी पारंगत थे. वे एक बार नागपुर के प्रसिद्ध करोड़पति श्री बापूसाहेब बूटी से भेंट करने के बाद अन्य सज्जनों के साथ बाबा के दर्शन करने मस्जिद में गये. बाबा ने फल बेचने वाले से अनेक प्रकार के फल और अन्य पदार्थ खरीदे और मस्जिद में उपस्थित लोंगों में उनको वितरित कर दिया. बाबा आम को इतनी चतुराई से चारों ओर से दबा देते थे कि चूसते ही सम्पूर्ण रस मुंह में आ जाता तथा गुठली और छिलका तुरन्त फेंक दिया जा सकता था. बाबा ने केले छीलकर भक्तों में बांट दिये और उनके छिलके अपने लिये रखलिये. हस्तरेखा विशारद होने के नाते, मुले शास्त्री ने बाबा के हाथ की परीक्षा करने की प्रार्थना की. लेकिन बाबा ने उनकी प्रार्थना पर कोई ध्यान न देकर उन्हें चार केले दिये इसके बाद सब लोग बाड़े को लौट आये. अब मुले शास्त्री ने स्नान किया और पवित्र वस्त्र धारण कर अग्निहोत्र आदि में जुट गए. बाबा भी अपने नियमानुसार लेंडी को रवाना हो गये. जाते-जाते उन्होंने कहा कि कुछ गेरु लाना, आज भगवा वस्त्र रंगेंगे. बाबा के शब्दों का अभिप्राय किसी की समझ में न आया. कुछ समय के बाद बाबा लौटे. अब मध्याह बेला की आरती की तैयारियां प्रारम्भ हो गई थी. बाबा के आसन ग्रहण करते ही भक्तों ने उनकी पूजा की. अब आरती प्रारम्भ हो गई. बाबा ने कहा, उस नये ब्राहमण से कुछ दक्षिणा लाओ. बूटी स्वयं दक्षिणा लेने को गये और उन्होंने बाबा का सन्देश मुले शास्त्री को सुनाया. वे सोचने लगे कि मैं तो एक अग्निहोत्री ब्राहमण हूं, फिर मुझे दक्षिणा देना क्या उचित है. माना कि बाबा महान संत है, लेकिन मैं तो उनका शिष्य नहीं हूं. फिर भी उन्होंने वे अपने कृत्य को अधूरा ही छोड़कर तुरन्त बूटी के साथ मस्जिद को गये. वे अपने को शुद्घ और पवित्र तथा मस्जिद को अपवित्र जानकर, कुछ अन्तर से खड़े हो गये और दूर से ही हाथ जोड़कर उन्होंने बाबा के ऊपर पुष्प फेंके. एकाएक उन्होंने देखा कि बाबा के आसन पर उनके कैलाश वासी गुरु घोलप स्वामी विराजमान हैं. अपने गुरु को वहां देखकर उन्हें महान आश्चर्य हुआ. कहीं यह स्वप्न तो नहीं है. नही यह स्वप्न नहीं हैं. मैं पूर्ण जागृत हूं. लेकिन जागृत होते हुये भी, मेरे गुरु महाराज यहां कैसे आ पहुंचे. कुछ समय तक उनके मुंह से एक भी शब्द न निकला. उन्होंने अपने को चिकोटी ली और पुनः विचार किया. वे निर्णय न कर सके कि कैलाशवासी गुरु घोलप स्वामी मस्जिद में कैसे आ पहुंचे. फिर सब सन्देह दूर करके वे आगे बढ़े और गुरु के चरणों पर गिर हाथ जोड़ कर स्तुति करने लगे. दूसरे भक्त तो बाबा की आरती गा रहे थे, लेकिन मुले शास्त्री अपने गुरु के नाम की ही गर्जना कर रहे थे. फिर सब जातिपांति का अहंकार तथा पवित्रता और अपवित्रता की कल्पना त्याग कर वे गुरु के श्रीचरणों पर पुनः गिर पड़े. उन्होंने आंखें मूंद ली, परन्तु खड़े होकर जब उन्होंने आंखें खोलीं तो बाबा को दक्षिणा मांगते हुए देखा. बाबा का आनन्दस्वरुप और उनकी अनिर्वचनीय शक्ति देख मुले शास्त्री आत्मविस्मृत हो गये. उनके हर्ष का ठिकाना न रहा. उन्होंने बाबा को पुनः नमस्कार किया और दक्षिणा दी. मुले शास्त्री कहने लगे कि मेरे सब संशय दूर हो गये. आज मुझे अपने गुरु के दर्शन हुए.