क्या पाप-कर्म करने वालों की मुक्ति सम्भव है?
जीवन में किए गए नकारात्मक एवं सकारात्मक कर्मों का स्त्रोत एक ही है. चरम सीमा तक किसी गुण में जाने से व्यक्ति गुण के अंत में पहुंचता है, गुणातीत होता है. पाप का भोग निश्चित है. यदि पापी धैर्यपूर्वक पाप के फूल को सह लेता है, तो वह भी पाप के प्रभाव से मुक्त हो जाता है. जो ईश्वर का स्मरण करता है, अपनी उस कुछ समय की शुद्ध चेतना की अवस्था के कारण वह पाप की अवस्था से बाहर आ जाता है. ईश्वर को प्राप्त करने के लिए अच्छा है कि मनुष्य पुण्यात्मक मार्ग से आगे बढ़े.
पाप और पुण्य का समन्वय कैसे करना चाहिए?
सामान्य मानवीय बुद्धि के अनुसार धर्म एवं अधर्म के बीच संघर्ष ही पाप एवं पुण्य के समन्वय का एक मिलन बिंदु है. सामान्य आदमी प्राय: पाप एवं पुण्य के समन्वय के बारे में कम और विरोधाभास के बारे में अधिक विचार करता है, लेकिन सन्त एवं सद्गुरु पाप एवं पुण्य के समन्वय के लिए प्रयत्न करते हैं, विरोधाभास के बारे में नहीं. आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सन्त या सद्गुरुओं का मुख्य कर्म है-
जीव-गति. वे जानते हैं कि पापी एवं पुण्यवान दोनों में ईश्वर निवास करते हैं. इसलिए मानव जैसे एक बुद्ध जीव को, जो कि अपनी आत्मा की दिव्यता एवं ईश्वरता का अनुभव नहीं कर पाता, वे उसे अपनी दिव्यता का अनुभव कराते हैं. इसलिए वे चेतना के स्तर के अनुसार पापी एवं निष्पापी हर व्यक्ति की सहायता करते हैं और पुण्यवंत लोगों की आध्यात्मिक प्रगति करने के लिए प्रयास करते हैं. पापी की आत्मा में सद्वृत्ति के जो अंकुर छुपे रहते हैं, वे उसे जागृत करते हैं. वे कभी भी किसी पापी को- चाहे वह कितना ही बड़ा पापी हो- नष्ट करने के पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि सद्गुरु का मूलभूत गुण है- ईश्वरीय करुणा.