एक लंबे संघर्ष के बाद वन अधिकार कानून (एफआरए) लागू हुआ. मकसद जल-जंगल-जमीन पर वहां के मूल निवासियों को पहला अधिकार देना था. सरकार-कॉरपोरेट को भला ये कहां हजम होता, सो इस कानून को कमजोर बनाने की साजिश 2016 से ही शुरू कर दी गई. इसी के तहत कैंपा और सीएएफ बिल पारित किया गया. इसके तहत सरकार कॉरपोरेट हित के लिए ग्राम सभा और आदिवासियों के अधिकार को धता बताते हुए उन्हें उनके मूल निवास से बेदखल कर सकती है… चौथी दुनिया की खास रिपोर्ट. 

jungleफैक्ट फाइल

  • 2008 में लागू हुआ था वन अधिकार कानून
  • सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर बना था कैम्पा कानून
  • 50 हजार करोड़ रुपए फंड के लिए सीएएफ के तहत कानून
  • सरकार चाहती है, ग्राम सभा के अधिकार को किया जाए कमजोर
  • आदिवासी हितों के ऊपर कॉरपोरेट हितों को तरजीह
  • आदिवासियों को फंसाया जा रहा है झूठे मुकदमों में

ऐसा लगता है कि सरकारों ने जल, जंगल और ज़मीन से आदिवासियों को बेदखल करने का मन बना लिया है. वरना कोई वजह नहीं कि उन्हें मिलने वाले अधिकारों को अलग-अलग बहानों से कमज़ोर किया जाए या उन अधिकारों को सिरे से ही समाप्त कर दिया जाए. पिछले दिनों झारखंड की एक खबर सुर्खियां बनने से रह गई थीं. यहां जादूटोला गांव के निवासियों ने आरोप लगाया कि कानून के उल्लंघन के आरोप में प्रशासन ने उनपर इसलिए मुकदमे ठोक दिए, ताकि वे अपनी ज़मीन पर प्रतिपूरक (काम्पेंसेटरी) वनीकरण की इजाज़त दे दें. उसी से मिलती जुलती कहानी ओड़ीशा के कंधमाल ज़िले के जंगलों में बसे एक छोटे से गांव बुलुबरू की है. यहां के निवासी अपना पेट भरने के लिए ज़मीन के जिस टुकड़े पर कंद मूल, फल, बाजरा इत्यादि उगाते थे, वहां वन विभाग ने सागवान के पेड़ लगा दिए. ज़ाहिर उनके जीविका का साधन जान-बूझकर छीन लिया गया. 2016 में छतीसगढ़ के सरगुजा जिले के प्रसा पूर्व और केटी बेसिन कोल ब्लॉक्स में खनन का विरोध कर रहे ग्रामीणों से निपटने का यह उपाय निकला कि घाटबर्रा गांव के ग्रामीणों को ही उनकी पारंपरिक ज़मीन से बेदखल कर दिया गया, यानी उनसे एफआरए (2006) के अधिकार छीन लिए गए.

दरअसल एक लंबी लड़ाई के बाद दिसंबर 2006 में अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम-2006 या वन अधिकार अधिनियम-2006 (एफआरए) संसद द्वारा पारित कराया गया था. यह कानून वन संसाधनों और वन क्षेत्र पर उन लाखों लोगों के अधिकारों को सुनिश्चित करता है, जिनसे यहां उन्हें सैकड़ों सालों से वंचित रखा गया था. यह कानून पूरे भारत में वन भूमि और वन संसाधनों पर व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकार देता है. एफआरए 1 जनवरी 2008 को लागू हुआ था. इस कानून को, वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों पर हो रहे ऐतिहासिक अन्याय को समाप्त करने का एक बड़ा हथियार माना गया. एफआरए पारित होने के बाद यह आशा की जा रही थी कि इससे लोकल सेल्फ गवर्नेंस को भी मजबूती मिलेगी और लोगों के जीविका का मसला बहुत हद तक हल होगा. साथ ही प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण होगा और जो वन क्षेत्र हिंसा ग्रस्त हैं, वहां हिंसा में कमी आएगी. लेकिन अब यह अधिकार खतरे में नज़र आ रहा है. कारण है कॉम्पेंसेटरी अफॉरेस्टेशन फंड (सीएएफ).

कॉम्पेंसेटरी अफॉरेस्टेशन फंड वन

(संरक्षण) अधिनियम 1980 के एक क़ानून के मुताबिक उद्योग, कारखानों और दूसरे गैर-वन उपयोग के लिए काटे गये जंगलों के बदले नये पेड़ लगाने और कमज़ोर या क्षीण हो रहे जंगल को घना बनाने का प्रावधान था. इस काम के लिए वन भूमि का उपयोग करने वाली कंपनियों और संस्थाओं को मुआवजा देना पड़ता है. 2002 में वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 को लागू करने के संबंध में टीएन गौडाबर्मन थिरुमूलपाद की याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी कि इस मद में जमा फंड या तो खर्च नहीं हो रहा है या फिर बहुत कम खर्च हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कैम्पा (क्षतिपूर्ति वनीकरण निधि प्रबंधन और नियोजन प्राधिकरण) गठित करने का आदेश देते हुए तत्काल प्रभाव से एक अनौपचारिक (ऐड-हॉक) कैम्पा गठित करने का आदेश दिया था. कैम्पा 2009 से राज्यों को इस कोष से पैसा वितरित कर रहा है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, आज तक इस फंड में 50 हज़ार करोड़ रुपए जमा हैं, लेकिन अबतक इस फंड से केवल 15 हज़ार करोड़ रुपए का ही वितरण हुआ है.

एफआरए को किया गया नज़रंदाज़

कैम्पा और सीएपी अधिनियम के संसद के दोनों सदनों से पारित हो जाने के बाद केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने सीएपी को लागू करने के लिए कानून का एक मसौदा जारी किया है. इस मसौदे पर न सिर्फ आदिवासी संगठनों की तरफ से विरोध हो रहा है, बलिक खुद केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने भी आपत्ति जताई है. जनजातीय मामलों के मंत्रालय की आपत्ति मसौदे में ग्राम सभा की परिभाषा को लेकर है. मंत्रालय के अधिकारियों का दावा है कि कानून का मसौदा तैयार करते समय उनकी सलाह नहीं ली गई थी. जबकि आदिवासी वन क्षेत्र के संरक्षण और वनीकरण के सबसे बड़े हितधारक हैं. दरअसल एफआरए (2006) के तहत ग्राम सभा के अधिकारों को जो विस्तार दिया गया था, उसे इस मसौदे में नज़रंदाज़ किया गया है.

यहां इस तथ्य का ज़िक्र कर देना दिलचस्पी से खाली नहीं होगा कि जब कैम्पा बिल (2016) राज्य सभा में पेश हो रहा था, उसी समय वन अधिकार क्षेत्र में काम करने वाली देश भर की 45 सिविल सोसाइटी संस्थाओं ने राज्यसभा को एक ज्ञापन देकर उस बिल पर अपना विरोध जताया था. उन्होंने विपक्षी दलों से राज्यसभा में इस बिल को उसके मौजूदा स्वरूप में विरोध करने की अपील की थी. इन संगठनों का कहना था कि कैम्पा बिल के तहत कंपेसट्री एफॉरेस्टेशन (प्रतिपूरक वनीकरण) कार्यक्रम में ग्रामसभा की सहमति का क्लॉज़ शामिल न कर वन अधिकार क़ानून (एफआरए) के उन प्रावधानों को बेअसर करने की कोशिश की गई है, जिसमें अनुसूचित जनजातियों एवं पारंपरिक रूप से वन में निवास करने वाले लोगों का वन के ऊपर अधिकार सुनिश्चित किया गया है. कांग्रेस समेत सभी विपक्षी पार्टियां इस बिल में एफआरए के तहत ग्राम सभा को दिए गए अधिकारों के अनुरूप ग्राम सभा की सहमति के क्लॉज़ को शामिल कराना चाहती थीं. इस संबंध में कांग्रेस सांसद जयराम रमेश ने संशोधन प्रस्ताव पेश किया था, जिसके जवाब में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री स्वर्गीय अनिल माधव दवे ने यह आश्वासन दिया था कि विपक्ष द्वारा उठाई गई अपत्तियों को इस अधिनियम के तहत बनाने वाले कानूनों में शामिल कर लिया जाएगा. इसके बाद जयराम रमेश ने अपने संशोधन का प्रस्ताव वापस ले लिया था और उक्त बिल राज्य सभा से भी पारित हो गया था.

ग्रामसभा से चिढ़ क्यों

अब सवाल यह उठता है कि आखिर पर्यावरण मंत्रालय इस क़ानून में ग्राम सभा की उस परिभाषा को शामिल क्यों नहीं करना चाहता, जो एफआरए-2006 में दिया गया है. दरअसल इसके जवाब के लिए पिछले कुछ वर्षों पर नज़र डालना ज़रूरी है. एफआरए के तहत ग्राम सभा को वृहद् अधिकार दिया गया है. इन्ही अधिकारों का उपयोग कर नियामगिरि (ओड़ीशा) की ग्राम सभा ने वेदांता को नियामगिरि में बॉक्साइट खनन से रोक दिया था. झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओड़ीशा के कंधमाल जिले की घटनाएं इस बात को साबित करती हैं कि सरकारें खनिज सम्पदा से धनी वन क्षेत्रों से हर हाल में आदिवासियों को भागना चाहती है, ताकि उनकी बड़ी कंपनियों को बिना रोक टोक प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने का मौक़ा मिलता रहे और तथाकथित विकास की राह में बाधा बने आदिवासियों को उनके पारंपरिक निवास स्थान से दूर भागने पर मजबूर किया जा सके. यदि इस कानून में एफआरए द्वारा दिए गए ग्राम सभा की परिभाषा को शामिल कर लिया जाता है तो यह काम मुश्किल हो जाएगा.

दरअसल, विकास और औद्योगीकरण की वजह से देश और दुनिया में वन क्षेत्रों की बेपनाह क्षति हुई है. परिणामस्वरूप सम्पूर्ण विश्व जलवायु परिवर्तन से जूझ रहा है. प्रदूषण अपने चरम सीमा पर है. इस पृष्ठभूमि में कमज़ोर वन क्षेत्रों को घना बनाने, कटे हुए वन की बराबर की भूमि पर पुनः वन लगाने और विस्थापित हुए जंगली जानवरों का पुनर्वास वक़्त की ज़रूरत है. लेकिन बुलुबरू गांव में सागवान के प्लांटेशन, सरगुजा के आदिवासियों से एफआरए के अधिकार छीनने, जादूटोला में ग्रामीणों के ऊपर मुकदमे, पूर्व में केंद्र सरकार के दो मंत्रालयों के बीच एफआरए से ग्राम सभा की सहमति का क्लॉज़ हटाने के संबंध में हुए पत्राचार और अब सीएपी के तहत जारी किये गए कानून के मसौदे में एफआरए के तहत दिए गए ग्राम सभा की परिभाषा को शामिल न करना यह साबित करता है कि कैम्पा और सीएपी वन अधिकारियों को अपनी मनमानी करने का पूरा अधिकार दे देगा. इसके द्वारा एफआरए द्वारा दिए गए इस अधिकार को क्षीण कर दिया जाएगा. साथ ही बुलुबरू की कहानी बार-बार दोहराई जाएगी. आदिवासी इस कानूनी मसौदे को लेकर जगह-जगह प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन गूंगी-बहरी सरकार और यहां तक कि विपक्ष को भी उनकी आवाज़ सुनाई नहीं दे रही है. अंत में यही कहा जा सकता है कि जंगल लगाने के नाम पर आदिवासियों को उनकी ज़मीन और उनके पुश्तैनी इलाकों से बेदखल करने के लिए बुलुबरू गांव जैसा हरबा अपनाया जाता रहेगा.

दो मंत्रालयों की रस्साकशी पर ‘चौथी दुनिया’ की 2 साल पुरानी रिपोर्ट

चौथी दुनिया ने 20 जून 2016 के अंक में एक विस्तृत रिपोर्ट (खनन के लिए खत्म होगी ग्राम सभा की सहमति!) प्रकाशित की थी, जिसमें जून 2015 और दिसम्बर 2015 के दरम्यान केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय और केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अधिकारियों के बीच के पत्राचार पर था. एनडीए सरकार के दो मंत्रालयों के बीच हुए पत्राचार के हवाले से बताया गया था कि कैसे सरकार एफआरए के अंतर्गत आदिवासियों और वन में निवास करने वाले लोगों के अधिकार को छीनना चाहती है. इन पत्रों में जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने अपना रुख स्पष्ट करते हुए कहा था कि वन भूमि को किसी परियोजना के लिए आवंटित करने से पहले एफआरए के तहत उस क्षेत्र के ग्रामसभा की सहमति अनिवार्य है. वहीं, पर्यावरण मंत्रालय इस ग्राम सभा की सहमति के क्लॉज़ हटाने की बात कर रहा था. एफआरए की सहमति वाले क्लॉज़ को लेकर इन दो मंत्रालयों के बीच रस्साकशी के दौरान केंद्र सरकार ने कैम्पा बिल पेश किया था और उस बिल में ग्राम सभा की सहमति का क्लॉज़ शामिल नहीं था. अब जब सीएपी के तहत कानून बनाया जा रहा है और उसमें ग्राम सभा की वही परिभाषा दी गई है जो संविधान की धारा 243(ई) में दी गई है. एफआरए की परिभाषा को नज़रंदाज़ कर दिया गया है, इसलिए सरकार की नीयत पर सवाल उठना लाजिमी है.

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